#मृत्यु के १० दिनों के पश्चात तक आत्मा अनिश्चय की स्थिति में बनी रहती है । इसे प्रेत योनि कहते हैं । यह आवश्यक नहीं कि यह अवधि १० दिनों की ही हो, यह ११ दिन अथवा ७ दिन भी हो सकती है । कुछ लोगों को ५ दिनों में ही शांति प्राप्त हो जाती है, परंतु प्राय: यह अवधि औसतन १० दिनों की ही अनुमानित है । यह वह समय होता है जब प्राणी ने शरीर तो छोड़ दिया है परंतु नये स्थान पर, एक भिन्न आयाम के साथ, उसका समन्वय नहीं हो पा रहा है ।
इसीलिए वह बीच में संघर्ष कर रहा है । यही समय शोक मनाने का होता है । यही समय प्रार्थना के लिए श्रेष्ठ है । प्राय: सभी धर्मों में लोग १० दिनों तक शोक सभाएँ और प्रार्थनाएँ करते हैं, कुछ स्थानों में वह अवधि ४० दिनों की भी है । प्रियजन दिवंगत आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं ।
भारत वर्ष में सम्पूर्ण #कर्मकाण्ड का पालन होता है । सभी संस्कार और कर्मकाण्ड विधिवत करते हुए भी, प्राय: लोग उसके औचित्य से अनजान बने रहते हैं । हाथ में तिल के दाने और जल लेकर तर्पण करते हुए दिवंगत आत्मा के लिए प्रार्थना की जाती है, "आपको तृप्ति प्राप्त हो, तृप्ति प्राप्त हो, तृप्ति प्राप्त हो ।" तृप्यताम्, तृप्यताम्, तृप्यताम्, इसे तीन बार कहा जाता है । पुत्र अथवा पुत्री इस धर्म-विधि को सम्पन्न करते हैं । पुत्रियों को भी इस अनुष्ठान का अधिकार है । दुर्भाग्यवश मध्यकाल में महिलाओं के लिए यह वर्जित हो गया था । मध्यकाल में यह अधिकार महिलाओं से छिन लिया गया था, किंतु प्राचीन काल में महिलाएँ भी इस कर्मकाण्ड में भागीदार होती थी । अत: संतान अपने माता व पिता के लिए इस धर्म विधि के द्वारा प्रार्थना करती है, "आप तृप्त रहें और आगे बढ़े " इसीलिए इसे तर्पण कहते हैं ।
"आपकी इच्छाएँ तिल के दाने के समान हैं । वे अति नगण्य -तुच्छ है । हम उनका ध्यान रखेंगे । आप उनका त्याग करके, आगे के मार्ग पर अग्रसर हो । इस नये आयाम में आपके योग्य अपार और अतुल्य ज्ञान है । आप इस संसार से आसक्त न रहें । पीछे मुड़ कर न देखें । आगे बढ़ते रहें ।"
संतान अपने माता-पिता से, उनकी मृत्यु के पश्चात तर्पण करते हुए यह कहती हैं । सारे श्लोक संस्कृत में होने के कारण, अधिकांश लोग इनके अर्थ नहीं समझ पाते हैं ।
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जाने वाली आत्मा को तर्पण दिया जाता है । यह उन्हें संतोषी बनाने के लिए ही है । जब वे जीवित थे, तब वे संतोषी नहीं थे । तो उन्हें उनकी मृत्यु के पश्चात संतोषी बनाया गया । यही कारण है कि बच्चों का तर्पण देना आवश्यक है । यह इस बात को सुनिश्चित करेगा कि जो कार्य उनके माता-पिता ने अधूरे छोड़ दिए हैं, वे उनको पूरा करेंगे । बच्चों को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए ।
पहले समय में, एक घर बनाने में कई साल लग जाते थे । एक मंदिर बनाने में कई पीढ़ियाँ लग जाती थी । इसका उदाहरण तंजुवर, तमिलनाडु का बृहदेश्वर मंदिर है । इस मंदिर का निर्माण तीन सौ सालों में तीन पीढ़ियों ने किया । यह बहुत ही आश्चर्यजनक बात है कि इस मंदिर के निर्माण में तीन सौ से चार सौ साल लगे ।
जो कार्य किसी एक ने आरंभ किया, वह किसी दूसरे को पूरा करना होता है । इसी प्रकार से, यदि पिता ज्योतिषी है, तो पुत्र भी ज्योतिषी बन जाता है । यदि पिता डॉक्टर है, तो पुत्र भी डॉक्टर बन जाता है । जो शुरू किये गए कार्य को आगे तक जारी रखता है, उसे शिष्य, पुत्र या वंशज कहा जाता है ।
ऐसा कहा गया है कि बच्चों को घर के बड़ों को तर्पण देना चाहिए, इसका तात्पर्य है कि बड़ों को सबसे पहले संतोष प्रदान करना चाहिए । यदि बड़े कोई कार्य करना चाहते थे और यदि यह अधूरा रह जाता है, तो कार्य पूरा करने से उन्हें तर्पण मिलता है । उनके कार्य को पूरा करना ही उन्हें तर्पण देने के समान है । यदि आप बड़ों को तर्पण देते हैं तो इसका अर्थ है कि आप उन्हें संतोष प्रदान कर रहे हैं । इसका कारण है कि उन्हें आप पर अधिक विश्वास होता है । उनका विश्वास होता है कि आने वाली पीढ़ी संसार को आगे लेकर जाएगी, या वे समाज का उत्थान करेंगे, देश के उत्थान के लिए प्रयास करेंगे और वंश वृक्ष को बनाए रखेंगे । बड़ों के इस विश्वास को पूरा करना, उन्हें तर्पण देना है ।
केवल तिल और जल देना ही #तर्पण नहीं है । हमें संतोषी बनना होगा और उन्हें ज्ञान देना होगा । संतोष केवल ज्ञान के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । इसीलिए कहा जाता है कि यदि परिवार के एक या दो लोग ध्यान या समाधि का अभ्यास करते हैं, तो आपसे पहले की सात पीढ़ियों को संतोष प्राप्त हो जाएगा । आपसे पहले की सात पीढ़ियों के कर्म नष्ट हो जाएँगे और उनके मन शुद्ध हो जायेंगे । ध्यान में बहुत अधिक शक्ति है । यह अतिशयोक्ति नहीं है । यह शास्त्रों में लिखा हुआ है ।
तर्पण जाने वाली आत्मा से यह कहना है कि हम यहाँ संतोष में हैं और आप जहाँ कहीं भी हो, संतोष में रहें । हमें उन्हें संतोष प्रदान करने से पहले स्वयं संतोषी बनना होगा । इसीलिए आप सत्संग, ध्यान और ज्ञान के जिन सत्रों में भाग लेते हैं, उनमें आप महसूस करते हैं कि आप संतोषी हैं । हमारी चेतना का प्रेम द्वारा जितना अधिक विस्तार होता है, उतना ही अधिक देवताओं को भी संतोष प्राप्त होता है ।
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*प्रश्न 😗 प्रणाम गुरुजी, मेरे परिवार में वृद्ध लोग कहते हैं कि दिवंगत आत्मा के तर्पण के समय समाशरण करना आवश्यक है । वे कहते हैं कि शंखचक्र डालने से पुण्य मिलता है ? क्या यह सत्य है ? क्या ये करना अनिवार्य है ?
*गुरुदेव 😗 नहीं । ये अनुष्ठान सांकेतिक होते हैं । #समाशरण की धार्मिक विधि करते समय हमारे एक हाथ में शंख व दूसरे हाथ में चक्र बनाते हैं । "मैं ही नारायण हूँ, मुझमें नारायण का वास है, सोहम" ये भाव जाग्रत करने के लिए शंख व चक्र की हाथों पर मोहर लगाते हैं । मैं नारायण स्वरूप हूँ अथवा नारायण मेरे भीतर हैं इसे स्मरण रखने के लिए, यह धार्मिक कृत्य सम्पादित किया जाता है । मोहर गरम करके इसलिए लगाते हैं जिससे कि वह स्थायी रूप से हाथों पर बना रहे जिससे तुम अपने सच्चे स्वरूप को कभी विस्मृत न करो । ऐसा करना अनिवार्य नहीं है । मोहर बनाकर ही तुम उसे महसूस कर सकोगे, ऐसा भी नहीं है । यह एक प्राचीन परंपरा है जिसमें वैष्णव संप्रदाय के गुरु, शिष्य के मन में छाप डालने के लिए यह अनुष्ठान करते थे ।
समाशरण का अर्थ है, सम आचरण, अर्थात् ईश्वर के समान आचरण करना । हर प्राणी के साथ इस प्रकार से व्यवहार करो, जैसे कि तुम स्वयं भगवान हो, अर्थात् सभी प्राणी मेरे अपने हैं । यही समाशरण का उद्देश्य है । देखो ! सेवा का भी यही अर्थ है स़ धन ईव । उसके (ईश्वर के) समान कार्य करना ही सेवा है अर्थात् ईश्वर की ही भाँति बिना किसी अपेक्षा के दूसरों के प्रति समर्पित रहना, सेवा है । ईश्वर बिना माँगे तुम्हारे ऊपर सब निछावर करता रहता है । यदि तुम भी बिना कोई अभिलाषा -आकांक्षा रखते हुए, समस्त प्राणियों की सेवा में समर्पित रहते हो तो वही सेवा है, समाशरण है । जीवन में ऐसे चलो, जैसे तुम नारायण हो । पहले तो एकाग्रचित होकर नारायण को ही भजो और फिर नारायण के समान हो जाओ ।
*गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर*
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